पश्चिम एशिया उस समय युद्ध की चपेट में आ गया था जब ईरान और इज़राइल के बीच सीधी सैन्य टकराहट देखने को मिली। ईरान ने पहली बार सीधे इज़राइल की धरती पर मिसाइल और ड्रोन हमले किए, और जवाब में इज़राइल ने तेहरान के भीतर तक हमले कर दिए। यह टकराव केवल सैन्य नहीं, बल्कि कूटनीतिक, तकनीकी और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी लड़ा गया। अब सवाल उठता है— क्या ईरान हारा या इज़राइल जीता?
तकनीकी श्रेष्ठता की बात करें तो इज़राइल के आयरन डोम और डेविड स्लिंग जैसे डिफेंस सिस्टम्स ने ईरान के 90% से अधिक मिसाइलों को हवा में ही रोक दिया। इसके अलावा, इज़राइल ने सीमित लेकिन गहन जवाबी हमले किए और ईरान के सैन्य ठिकानों और ड्रोन फैसिलिटी को नुकसान पहुंचाया। वहीं अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों ने इज़राइल के बचाव के अधिकार को समर्थन दिया, जबकि ईरान को अपेक्षित समर्थन नहीं मिला। यहां तक की रूस और चीन ने भी सिर्फ अमेरिकी हमलों की निंदा की और तेहरान को किसी प्रकार के समर्थन का भरोसा नहीं दिया।
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इस पूरे प्रकरण की एक और विशेष बात यह रही कि पहली बार ईरान ने खुले तौर पर इज़राइल पर हमला किया, इससे वहां के शासकों का घरेलू समर्थन मजबूत हुआ है क्योंकि उन्होंने पूरी दुनिया को अपना “सामर्थ्य” दिखा दिया है। यह बात भी काबिलेगौर है कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया की कई रिपोर्टों के अनुसार ईरान की संपत्ति को सीमित नुकसान हुआ है। वहीं इज़राइल ने यह दर्शाया कि वह अब केवल प्रतिक्रिया देने वाला देश नहीं, बल्कि पहले वार करने में सक्षम देश है। इजराइल के आग्रह पर जिस तरह अमेरिका ने ईरान के परमाणु ठिकानों को तबाह करने के लिए बंकर बलास्टर बम गिराये उससे भी दुनिया में इजराइल का रुतबा बढ़ा है।
लेकिन इस सबके बावजूद, इस युद्ध में किसी भी पक्ष की कोई निर्णायक “जीत” नहीं हुई है। ईरान अपनी जमीन बचाने में सफल रहा लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसे हार मिली। इज़राइल ने तकनीकी और कूटनीतिक स्तर पर जीत हासिल की, लेकिन उसे अपनी सीमाओं के अंदर हमलों का सामना करना पड़ा, जो दशकों में पहली बार हुआ। इसके अलावा, यह संघर्ष दर्शाता है कि आधुनिक युद्ध केवल बंदूक और मिसाइल से नहीं, बल्कि सूचना, तकनीक और कूटनीति से भी लड़ा जाता है। इसलिए भविष्य के युद्धों का रूप और स्वरूप बदलने वाला है।