उपनिवेशवादियों ने लगभग 19वीं शताब्दी की अवधि के दौरान सुविधा की श्रेणियों का उपयोग करके भारतीय सामाजिक पहचान का निर्माण किया। यह ब्रिटिश भारतीय सरकार के अपने हितों की पूर्ति के लिए किया गया था। जिसका मूल मकसद मुख्य रूप से एक समान कानून वाला एकल समाज बनाने के लिए जिसे आसानी से शासित किया जा सके। आस्थाओं और सामाजिक पहचानों की एक बहुत बड़ी, जटिल और क्षेत्रीय रूप से विविध प्रणाली को इस हद तक सरल बनाया गया कि शायद विश्व इतिहास में इसका कोई उदाहरण नहीं देखा गया। री तरह से नई श्रेणियां और पदानुक्रम बनाए गए, असंगत या बेमेल हिस्सों को एक साथ भर दिया गया, नई सीमाएं बनाई गईं। जाति आधारित आरक्षण का विचार सबसे पहले साल 1882 में दिया गया था।
आरक्षण की मांग
विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले ने सबसे पहले देश में जाति आधारित आरक्षण की बात की थी और इसके बाद देश में मुसलमानों, सिखों, ईसाईयों, एंगलो-हिंदू, यूरोपीयन और दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र के लिए कम्युनल अवॉर्ड की शुरुआत हुई। कम्युनल अवॉर्ड 1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनल्ड लाए थे। इसके तहत दलितों को 2 वोट का अधिकार मिला। कम्युनल अवॉर्ड 1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनल्ड लाए थे। इसके तहत दलितों को 2 वोट का अधिकार मिला। इस अधिकार के जरिए दलित एक वोट से प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुन सकते थे।
गांधी आंबेडकर के बीच का पूना पैक्ट
पुणे की यरवदा जेल में बंद महात्मा गांधी और डॉ भीमराव अंबेडकर के बीच दलितों के अधिकार और उनके हितों की रक्षा के लिए पूना पैक्ट हुआ था। कहा जाता है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने बड़े बेमन से इस पैक्ट पर हस्ताक्षर किए थे। 17 अगस्त 1932 को ब्रिटिश सरकार ने कमिनुअल अवॉर्ड की शुरुआत की। इसमें दलितों को अलग निर्वाचन का स्वतंत्र राजनीतिक अधिकार मिला। इसके साथ ही दलितों को दो वोट के साथ कई और अधिकार मिले। दो वोट के अधिकार के मुताबिक देश के दलित एक वोट से अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से वो सामान्य वर्ग के किसी प्रतिनिधि को चुन सकते थे। यानी यदि यह लागू हो जाता तो संभवतः दलितों को हमेशा के लिए औपचारिक तौर पर हिन्दुओं से अलग पहचान मिल जाती। राजमोहन गांधी की पुस्तक ‘अंडरस्टैंडिंग दी फाउंडिंग फादर्स’ के अनुसार महात्मा गांधी दलितों को दिए इन अधिकारों के विरोध में थे। महात्मा गांधी का मानना था कि इससे हिंदू समाज बंट जाएगा। महात्मा गांधी दलितों के उत्थान के पक्षधर थे लेकिन वो दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और उनके दो वोट के अधिकार के विरोधी थे। महात्मा गांधी को लगता था कि इससे दलित हिंदू धर्म से अलग हो जाएंगे। हिंदू समाज और हिंदू धर्म विघटित हो जाएगा।महात्मा गांधी ने पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि वो दलितों के अलग निर्वाचन के विरोध में अपनी जान की बाजी लगा देंगे। गांधी ने इन परिस्थितियों के लिए बार-बार सवर्णों को ही जिम्मेदार ठहराया था और उन्हें आत्मचिंतन करने के लिए प्रेरित किया था। इसका असर भी दिखना शुरू हुआ। जगह-जगह मंदिरों, तालाबों और कुओं को अपने आप ही दलितों के लिए खोला जाने लगा। हालांकि अंबेडकर अब मात्र इन सबसे ही संतुष्ट होनेवाले नहीं थे। वे स्पष्ट रूप से राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी चाहते थे। अनशन की वजह से महात्मा गांधी की तबीयत लगातार बिगड़ने लगी। अंबेडकर पर शोषित तबकों के अधिकारों से समझौता कर लेने का दबाव बढ़ने लगा। देश के कई हिस्सों में भीमराव अंबेडकर के पुतले जलाए गए, उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए। 24 सितंबर 1932 को शाम 5 बजे पुणे की यरवदा जेल कहा जाता है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने बेमन से रोते हुए पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए थे। उस समझौते से दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और दो वोट का अधिकार खत्म हो गया। उसके बदले में प्रांतीय विधानमंडलों में दलितों की आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 148 कर दी गई और केंद्रीय विधायिका में कुल सीटों का 18 फीसदी करने का प्रावधान किया गया। इस समझौते की सबसे अहम बात यह थी कि सिविल सर्विसेज में दलित वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए राजी हो गई। यानी सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान इसी पैक्ट की देन है।
मंडल कमीशन
ये वो आग थी जिसने हिन्दुस्तान की सियासत का नक्शा हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया था। आरक्षण, जी हां पिछड़े तबके की सामाजिक बदहाली के एवज में लाभ के हालात या कहें बराबरी में खड़े होने की सुविधा। लेकिन फैसले सामाजिक न्याय के लिए नहीं बल्कि सियासी तिकड़मों के लिए थे । हालात बिगड़े औऱ बिगड़ते हालातों को थामने की जगह हालात और बिगाड़ने की राजनीति शुरू हो गई। क्योंकि ये आंदोलन सत्ता पाने और सत्ता बदलने का मजबूत हथियार बन गया था। देखते-देखते समूची हिंदी पट्टी जातीयवाद के नाम पर बंट गई। समाज टुकड़ों में बंटने लगा और बंटते-बंटते लहू-लुहान होना भी शुरू हो गया। सवर्ण तबके के छात्रों ने वीपी सिंह हाय हाय, मंडल कमीशन डाउन डाउन के नारे लगाने शुरू कर दिए। तो पुलिस प्रशासन का डंडा उन पर कहर बनकर टूटने लगा। कई छात्रों ने विरोध में खुद को आग लगा ली। वीपी सिंह के इस फैसले ने देश की सियासत बदल दी। सवर्ण जातियों के युवा सड़क पर उतर आए। आरक्षण विरोधी आंदोलन के नेता बने राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया। कई हमेशा-हमेशा के लिए अपनी पहचान खोते चले गए। तो कई नए नेता उभरे जिनकी पहचान की बुनियाद जातिवादी वोटबैंक पर टिकी थी। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के खिलाफ अखिल भारतीय आरक्षण विरोधी मोर्चे के अध्यक्ष उज्जवल सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। उज्जवल सिंह की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह मामला नौ न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया। 16 नवंबर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने के फैसले को सही ठहराया। इसी याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 49.5 प्रतिशत तक कर दी।