Breaking News

Jan Gan Man: क्या किसी Waqf Board के फतवे में इतनी ताकत है कि वह अहमदियाओं को मुस्लिम मानने से इंकार कर दे?

क्या भारत में कोई भी संस्था संविधान, संसद या कानून से बड़ी हो सकती है? क्या भारत के राजपत्र के अलावा किसी और पत्र या फतवे का कोई महत्व है? क्या भारत में किसी संस्था के पास यह अधिकार है कि वह यह निर्धारित कर सके कि कौन किस धर्म का व्यक्ति है? यह सब सवाल इसलिए उठे हैं क्योंकि आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड ने एक प्रस्ताव पारित कर अहमदिया समुदाय को ‘काफिर’ (ऐसा व्यक्ति जो इस्लाम का अनुयायी न हो) और गैर मुस्लिम बताया है।
कौन हैं अहमदिया?
हम आपको बता दें कि अहमदिया मुस्लिम सुन्नी मुस्लिमों की उपश्रेणी में आते हैं। यह ऐसे मुसलमान माने जाते हैं जो मोहम्मद साहब को आखिरी पैगम्बर नहीं मानते। अहमदिया मुस्लिमों का यकीन है कि मोहम्मद साहब के बाद उनके गुरु मिर्जा गुलाम अहमद नबी (दूत या मैसेंजर) हुए थे। यानि एक ओर दुनिया के अधिकतर मुस्लिम मोहम्मद साहब को आखिरी पैगम्बर मानते हैं तो दूसरी ओर अहमदियाओं का कहना है कि आखिरी नबी मिर्जा गुलाम अहमद थे। इसी कारण भारत और पाकिस्तान में अहमदिया मुस्लिमों को मुस्लिम समाज के अधिकतर लोग हिकारत की दृष्टि से देखते हैं। दुनिया में अफ्रीकी देशों को छोड़ दें तो बाकी जगह अहमदियाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। पाकिस्तान में अहमदिया को मुस्लिम नहीं माना जाता, अगर वह खुद को मुस्लिम बताएं तो उनके लिए सजा का प्रावधान है जबकि भारत में कानून की नजर में अहमदिया भी मुस्लिम ही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि कोई वक्फ बोर्ड यह कैसे ऐलान कर सकता है कि अहमदिया समाज के लोग मुस्लिम नहीं हैं?
अहमदिया से नफरत क्यों?
जहां तक अहमदिया समुदाय के प्रति मुस्लिम नेताओं के रुख की बात है तो यह भारत में भी पाकिस्तान की तरह ही नजर आता है। हालांकि पाकिस्तान में अहमदियाओं पर और उनकी संपत्तियों पर हमले होते रहते हैं लेकिन भारत में चूंकि पूर्णतः कानून का शासन चलता है इसलिए किसी की हिम्मत नहीं होती कि अहमदियाओं पर शारीरिक हमले कर सके। देखा जाये तो पाकिस्तान में हिंदुओं के अलावा अल्पसंख्यक अहमदी समुदाय ही सबसे ज्यादा निशाने पर रहता है। पाकिस्तान की संसद ने 1974 में अहमदी समुदाय को गैर-मुसलमान घोषित किया था। इसके एक दशक बाद उनके स्वयं को मुस्लिम कहने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। उन पर तीर्थयात्रा के लिए सऊदी अरब की यात्रा करने और उपदेश देने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। पाकिस्तान में तो किसी पर लांछन लगाना हो या किसी का अपमान करना हो तो उसे अहमदिया कह कर संबोधित किया जाता है।
मोदी सरकार ने मांगा जवाब
बहरहाल, मोदी सरकार ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिव केएस जवाहर रेड्डी को भेजे पत्र में कहा है कि उसे 20 जुलाई को अहमदिया समुदाय से एक पत्र मिला है जिसमें कहा गया है कि कुछ वक्फ बोर्ड अहमदिया समुदाय का विरोध कर रहे हैं और समुदाय को इस्लाम से बाहर का घोषित करने के लिए अवैध प्रस्ताव पारित कर रहे हैं। केएस जवाहर रेड्डी को भेजे पत्र में केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय ने कहा है कि वक्फ बोर्ड के पास अहमदिया सहित किसी भी समुदाय की धार्मिक पहचान निर्धारित करने का न तो अधिकार क्षेत्र है और न ही अधिकार है। केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय ने आंध्र प्रदेश सरकार को भेजे पत्र में वक्फ बोर्ड के प्रस्ताव को ‘नफरती अभियान’ बताया और कहा कि इसका असर पूरे देश में पड़ सकता है।

इसे भी पढ़ें: रोहिंग्या मुसलमानों पर शिकंजा कस रही Yogi Government, एटीएस ने ऑपरेशन चलाकर 74 को दबोचा

स्मृति ईरानी की प्रतिक्रिया
यही नहीं, केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री स्मृति ईरानी ने भी कहा है कि किसी भी वक्फ बोर्ड के पास यह अधिकार नहीं है कि वह यह निर्धारित करे कि कौन किस धर्म का है। अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा है कि देश के किसी भी वक्फ बोर्ड के पास किसी व्यक्ति या समुदाय को धर्म से बाहर करने का अधिकार नहीं है। ईरानी का कहना है कि मैं केवल इतना कहना चाहती हूं कि सभी वक्फ बोर्ड संसद के अधिनियम के तहत आते हैं। कोई भी वक्फ बोर्ड संसद की गरिमा के विपरीत काम नहीं कर सकता और उसके द्वारा बनाए गए कानूनों का उल्लंघन नहीं कर सकता। किसी भी वक्फ बोर्ड को इसकी इजाजत नहीं है कि वह किसी फतवे को सरकारी आदेश में बदल दे। उन्होंने जानकारी दी है कि हमने आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिव से जवाब मांगा है। हमने उनसे तथ्यों को पेश करने का अनुरोध किया है क्योंकि अहमदिया मुस्लिम समुदाय ने अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के समक्ष अपील की है। मंत्री ने कहा कि वह राज्य के मुख्य सचिव के जवाब का इंतजार कर रही हैं।
जमीयत उलेमा-ए-हिंद का बयान
दूसरी ओर स्मृति ईरानी के इस बयान के खिलाफ उतरते हुए प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद (एमएम समूह) ने आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड का समर्थन कर दिया है। बोर्ड ने दावा कर दिया है कि यह सभी मुसलमानों का “सर्वसम्मत रुख” है। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह बोर्ड सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता है? जमीयत के बयान में यह भी कहा गया है कि इस संबंध में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की अलग राय और उनका अलग रुख अनुचित और अतार्किक है, क्योंकि वक्फ बोर्ड की स्थापना मुसलमानों की वक्फ संपत्तियों और उनके हितों के संरक्षण के लिए की गई है, जैसा कि वक्फ अधिनियम में लिखा गया है। संगठन ने कहा कि इसलिए जो समुदाय मुसलमान नहीं हैं, उसकी संपत्तियां और इबादत के स्थान इसके दायरे में नहीं आते हैं। मुस्लिम संगठन ने कहा है कि इसके मद्देनजर 2009 में आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड ने जमीयत उलेमा आंध्र प्रदेश की अपील पर यह दृष्टिकोण अपनाया था। जमीयत ने कहा कि वक्फ बोर्ड ने 23 फरवरी के अपने बयान में उसी दृष्टिकोण को दोहराया है। जमीयत ने कहा कि इस्लाम धर्म की बुनियाद दो महत्वपूर्ण मान्यताओं पर है, एक अल्लाह को मानना और दूसरा पैगंबर मोहम्मद को अल्लाह का रसूल और अंतिम नबी मानना है। बयान में कहा गया है कि यह दोनों आस्थाएं इस्लाम के पांच बुनियादी स्तंभों में भी शामिल हैं।
संगठन ने कहा कि इन इस्लामी मान्यताओं के विपरीत मिर्जा गुलाम अहमद ने एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाया जो पैगम्बरवाद के अंत की अवधारणा के पूरी तरह से विरुद्ध है तथा इस मौलिक और वास्तविक अंतर के मद्देनजर अहमदिया को इस्लाम के संप्रदायों में सम्मिलित करने का कोई आधार नहीं है और इस्लाम के सभी पंथ इस बात पर सहमत हैं कि यह गैर मुस्लिम समुदाय है। जमीयत के मुताबिक, मुस्लिम वर्ल्ड लीग के छह से 10 अप्रैल 1974 को आयोजित सम्मेलन में सर्वसम्मति से अहमदिया समुदाय के संबंध में प्रस्ताव पारित कर घोषणा की गई थी कि इसका इस्लाम से संबंध नहीं है। इस सम्मेलन में 110 देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। जमीयत ने अपनी दलील के पक्ष में विभिन्न अदालतों के फैसलों का भी हवाला दिया। खैर…जमीयत या उस जैसे संगठन कुछ भी कहें, भारत में किसी वक्फ या जमीयत का फतवा नहीं बल्कि संविधान में लिखी गयी बातें ही महत्व रखती हैं और देश उसी के आधार पर चलता है।

Loading

Back
Messenger